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कविता

काँसे की घंटियाँ

सर्वेंद्र विक्रम


गाने लगती हैं काँसे की घंटियाँ हजारों-हजार
नीम-अँधेरे आते हैं पुचकारते राजकुमार
नींद में दाखिल एक ललमुनिया कहती है,
'आओ उड़ो मैं आसमान हूँ',
बिस्तर पर पसर जाती है उदासी

मूँछें उमेठे कानों से धुआँ छोड़ते
आते हैं 'हुसेन' के घोड़े
जताने लगते हैं अपना दुलार
मखमली त्वचा से सुनहरे बालों और कटावों से
हिरनी जैसी आँखों से

सपने में आती है 'शक्ति'
सपनों की तरह क्षण-क्षण बदलती है नौ रूप
असमंजस में अंततः रोने लगती है धार-धार

रोज-रोज घिसकर थोड़ा छोटी होती पानी ढोती औरतें
खाली होते ही जा रही हैं सौरगृह में बैठने
वे फिर से हैं उम्मीद से
वक्त-बेवक्त बोलने लगती हैं मुँडेर पर अपशकुनी चिड़िया,
पर्दे के पीछे से ढुलककर रुलाई बाहर आती है

तब जिंदगी में खुलनेवाला दरवाजा
संझाबेला बंद करते वक्त
वे कहना नहीं भूलतीं आखिरी बार
उन्होंने प्यार किया चुपचाप
दूसरों की जिंदगी का हिस्सा बनना
सहना चुपचाप सीख लिया छाया बनना
इसी में थी सबकी भलाई प्रथा समय में

वे कहाँ रहती रहीं इतने वर्षों निःशब्द
किस कोने-अँतरे था उनका घर-द्वार
जब वे नहीं रहेंगी तो याद की जाएँगी किस तरह,
सुनकर चुप रह जाएँगी बच्चों की पुकार ?
उनकी मानवीय उपस्थिति कहीं दर्ज तो की जाएगी !


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